संतोष कुमार

 

कुछ दिनों पहले मौका मिला अपने पुराने कॉलेज जाने का- “श्री वेंकटेश्वर कॉलेज” जहाँ से मैं ग्रेजुएट हुआ. जितनी ख़ुशी कॉलेज की अनुभूति करके हुई उतनी ही ख़ुशी “अनुभूति” को देखकर भी हुई. अनुभूति से मेरा आशय हिंदी नाट्य समिति से है जिसका नाम “अनुभूति” है. लगे हाथो उनका नया नाटक देखने का मौका मिला जिसका नाम था “MEDI-SIN”. शीर्षक में ही कटाक्ष था व्यंग्य था और नाटक भी कटाक्ष था चिकित्सा में पनपते लालच, व्यवसायिकता व असंवेदनशीलता के माहौल पर. और नाटक अभूतपूर्व था . पर इस नाटक ने हमें सोचने पर भी मजबूर कर दिया. और ये बात नुक्कड़ नाटक को और अधिक प्रशंसनीय बना देती है. पर फिर ये सवाल उठा की क्या हमारी फिल्मो में कोशिश हुई है डॉक्टर के चरित्र को दर्शाने की. और यदि हाँ तो कैसे. क्या ये चरित्र चिकित्सा जगत को अंकित करते है अथवा बिना पृष्ठभूमि के डॉक्टर को नायक का स्टेटस सिंबल बना देते है.

हमारी फिल्मो में डॉक्टर की भूमिका बहुत अहम होती है. पुरानी फिल्मो में अधिकतर इस विषय पर कोई रिसर्च नहीं किया जाता था. लोगो को गिन चुन के चार बीमारियाँ होती थी- कैंसर, हार्ट अटैक, टी.बी. और ब्रेन हेमरेज! डॉक्टर का रोल निभाने वाले अभिनेता के दो ही डायलोग अमूमन हुआ करते थे- आई ऍम सॉरी ही इस नो मोर! या मुबारक हो…… हालत तो ये हो गयी थी की अगर हीरो के सर पर चोट लग जाये तो डॉक्टर के बोलने से पहले ही दर्शक समझ जाता था कि हीरो की याददाश्त चली  गयी है!! या जब माँ बाप या दादा दादी को कोई कडवी बात कही जाती थी तो दर्शक जान जाता था कि अभी इनको हार्ट अटैक आने वाला है!! पर हाँ डॉक्टर एक ऐसा काम धड़ल्ले से किया करते थे जो नासा के साइंटिस्ट को भी एकबारगी अचंभित कर दे. और वो थी प्लास्टिक सर्जरी! सीरियल में एक्टर बदलना हो तो प्लास्टिक सर्जरी अमोघ बाण है. और हमारे फ़िल्मी डॉक्टर के पास वो कला थी की वो प्लास्टिक सर्जरी के ज़रिये इन्सान की सूरत ही नहीं आवाज़ हाइट वेट सब बदल देते थे!

ये तो थी मज़ाक की बात पर गंभीरता से सोचने वाली बात ये कि हमारी अधिकतर हिंदी फिल्मो और सीरियलों में डॉक्टर का काम मैसेंजर से अधिक कुछ न था. डॉक्टर अगर कुछ सीरियलों  में डॉक्टर प्रमुख पात्र होते भी थे तो उनका काम डाक्टरी कम और रोमांस अधिक था. डॉक्टर और उनके व्यवसायों को हिंदी सिनेमा में विरले ही प्रमुखता से दिखाया गया. यहाँ ये स्पष्ट कर देना अति आवश्यक है की विदेशी सिनेमा व अपने देश के स्थानीय भाषाओ की फिल्मो से हम काफी हद तक अनिभिज्ञ है अतेव हमारे चर्चा का विषय हिंदी सिनेमा पर केन्द्रित है.

“डॉ. कोटनिस की अमर कहानी” कदाचित डॉक्टर के जीवन पर बनी महत्वपूर्ण आरंभिक फिल्मो में से एक थी. वी.शांताराम द्वारा निर्देशित ये फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित थी व इसे काफी सराहा गया. इस फिल्म की एक ख़ास बात थी की इसपर इप्टा और वामपंथी प्रभाव साफ़ दिखता था. फिल्मफेयर पुरस्कार जीतने वाली फिल्म “हिमालय की गोद में” भी चिकित्सको के कार्य पर केन्द्रित फिल्म थी यद्यपि ये यथार्थवादी सिनेमा न होकर मनोरंजक सिनेमा का हिस्सा थी. डॉक्टर का किरदार कई फिल्मो में महत्वपूर्ण थे परन्तु ये फिल्मे डॉक्टर नायक के निजी जीवन भर आधारित थी. यथा- “मौसम” में संजीव कुमार या “वो 7 दिन” में नसीरुद्दीन शाह.

सवाल उठता है की डाक्टरी पेशे पर कितनी और कैसी फिल्मे बनी है. एक तरफ तो वो फिल्मे है जो डॉक्टर और मरीज़ के सम्बन्ध पर बनी है और ख़ुशी की बात ये की इस विषय पर कई बेहतर फिल्मे बनी है. इसमें जो सबसे पहले ज़हन में आती है वो है “आनंद”. ये फिल्म केवल राजेश खन्ना के किरदार आनंद की जिंदादिली पर नहीं थी. ये फिल्म एक डॉक्टर की हताशा भी दर्शाती है. फिल्म के पहले ही सीन में अमिताभ बच्चन के किरादर “भास्कर बनर्जी” के ज़रिये डॉक्टर के मन की कुंठा भी सामने आती है- “मैं बीमारी का इलाज कर सकता हूँ पर भूख का नहीं गरीबी का नहीं”. ये फिल्म एक द्वन्द के डॉक्टर के मन का, एक भावनात्मक इन्सान और दोस्त का मन जो चाहता है की आनंद जीता रहे और एक तार्किक डाक्टरी मन जो जानता है की वो नहीं जीएगा. आनंद जैसी फिल्मे विरले ही बनती है. यहाँ तक जब हृषिकेश मुख़र्जी ने इसी विषय से मिलती जुलती  फिल्म “मिली” बनायीं तो वो कहीं भी आनंद के स्तर को छु नहीं पाई और न ही छु पाई आनंद से प्रभावित होकर बनी फिल्म “कल हो न हो” जहाँ मरीज़ डॉक्टर की कहानी एक प्रेम त्रिकोण बन गयी और डॉक्टर उस त्रिकोण का हिस्सा भी नहीं थी. इसी विषय पर बनी एक और बढ़िया फिल्म “गुज़ारिश” थी जो व्यक्ति की जिंदादिली तो दिखाता  है साथ ही “इच्छा मृत्यु” का प्रश्न भी उठाता है. इस फिल्म में भी मरीज़ की नर्स का द्वन्द दिखता है. द्वन्द कि मरीज़ को इंसानी नजरो से देखा जाये या डाक्टरी नजरो से. डॉक्टर व मरीज़ के बीच के भावनात्मक सम्बन्ध को अलग अलग तरह से दिखाया गया है इसकी एक बानगी “दिल एक मंदिर” में दिखती है जिसमे मरीज़ नयाक्की पूर्व प्रेमिका का पति है. ये द्वन्द भावनाओ के समन्दर को जन्म देता है. वही “मुन्ना भाई m.b.b.s” में मुन्ना भाई और Mr.आनंद  का रिश्ता इन सबसे अलग है. इसमें एक विद्रोह छुपा है डाक्टरी असवेंदंशीलता के खिलाफ. ये विद्रोह आतंरिक भी और बाहरी भी क्यूंकि मुन्ना भाई डॉक्टर होकर भी नहीं है और नहीं होकर भी है. परन्तु अक्सर देखा गया है की डॉक्टर- मरीज़ के रिश्तो पर बनी अधिकतर फिल्मे मरीज के परिपेक्ष्य से कहानी कहती है. इसका सीधा सा कारण ये है कि मरीज़ के साथ भावनाए, संवेदनाये और हमदर्दी जुडी होती है, उसका एक दुःख है जो हमारी आँखों में नमी लाता है. डाक्टरों  को अक्सर कम संवेदना वाला, तर्कशील और धीर गंभीर प्रवृत्ति वाला ही दिखाया जाता है और उसमे संवेदनाये जगाने का बड़ा काम मरीज़ करता है जैसे आनंद में. फिल्म का आखिरी सीन किसी के भी रोंगटे खड़े कर सकता है. यहाँ एक डॉक्टर है जिसमे मरीज़ के प्रति वो भावनात्मक लगाव पैदा हो गया जो उससे इस बात को मानने नहीं दे रहा की आनंद अब नहीं रहा. इसलिए जब टेप रिकॉर्डर  से  “बाबु मोशाये…..” की आवाज़ आती है तो अनायास ही वो आनंद के चेहरे को देखता है, मनो किसी चमत्कार की आशा से.

अब बात करते है उन फिल्मो की जो डाक्टरी पेशे की कमियों को रेखांकित करते है या उनपर कटाक्ष करते है. इसमें दो फिल्मे जेहन में आती है- “मुन्ना भाई m.b.b.s” और “एक डॉक्टर की मौत”. मुन्ना भाई के किरदार और खूब सारे व्यंग्य की चाशनी में लपेटकर आपको डाक्टरी जीवन के कडवे पक्ष से अवगत कराया जाता है. एक ऐसी दुनिया जहाँ हमदर्दी और संवेदनशीलता का स्थान मशीनी हाथ और उससे भी अधिक मशीनी दिमाग ले लेती है. पर सबकुछ इतना काला सफ़ेद नहीं है. बोमन ईरानी का किरदार जब ये कहता है की- “आई डोंट लव माय पेशेंट्स. मैंने हज़ारो आपरेशन किये पर मेरे हाथ कभी नहीं काँपे पर अगर मैं अपनी बेटी का आपरेशन करू तो ये हाथ ज़रूर कापेंगे’ तो आप उससे सहमत हुए बिना नहीं रह पाते. फिर भी कहीं न कहीं गुन्जायिश तो रहती है एक हंसी की हमदर्दी है संवेदनाओ की. अनुभूति का नाटक देखने और मुन्ना भाई…. देखने के बाद मुझे फूको याद आ गया. कैसे अतार्किकता, पुर्वाग्रह आदि विज्ञानं की भाषा में ज्ञान का चोला ओढ़े पुनरुपस्थित हो जाती है. कैसे डॉक्टर की नज़र(gaze) मरीज़ की बीमारी को पहचानने का आधार बन जाती है. वो ठंडी नज़र जो मरीज़ को एक बीमार शारीर मानती है या शोध का एक माध्यम मात्र. जहाँ आपका हांड मांस आपकी चेतना से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है और जहाँ डॉक्टर मरीज़ का रिश्ता श्रेष्ठता व शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बन जाता है. और ये बदलाव फिल्मो में भी दिख जाता है, डाक्टरी शब्दावली बदल गयी है. “जब तक है जान” या “गजनी” में याददाश्त खो जाना को “retrograde amnesia” का नाम मिल गया. शब्दावली तकनीकी हो गयी पर अर्थ नहीं बदला न भाव बदला.

“एक डॉक्टर की मौत” एक डॉक्टर के अपनी ही बिरादरी में होते शोषण और अपमान की कहानी है. कैसे एक डॉक्टर को अपने द्वारा किये गए शोध का श्रेय नहीं मिलता. इसमें डाक्टरी पक्षपात भी है, सरकारी अनदेखी भी. एक डॉक्टर के जूनून और समाज की उपेक्षा से उपजती हताशा और कड़वाहट का सजीव चित्रण किया है फिल्म में. पर साथ ही ये फिल्म एक जुनूनी डॉक्टर के अपने शोध के लिए परिवार को  दरकिनार रख देने से उपजे आतंरिक कलह की भी कहानी है. ये डॉक्टर के जीवन की भीतरी कलई खोल देता है और हमारे देश में विज्ञानं और शोध की दुर्दशा का चित्रण करता है. फिल्म एक सच्ची कहानी से प्रभावित तो होती है पर जाने क्यूँ कहानी  दुखद अंत पर खत्म नहीं करती. फिल्म में यद्यपि आखिर में डॉक्टर की मौत नहीं होती परन्तु ये शीर्षक दो वजह से महत्वपूर्ण हो जाता है. एक तो फिल्म खत्म होने से तुरंत पहले दर्शको को ज्ञान मिलता है की जिस डॉक्टर की कहानी से प्रभावित होकर ये फिल्म बनी उसने बदहाली में आत्महत्या कर ली थी. जहाँ इससे हम एक कडवे सत्य से वाकिफ होते है वहीँ फिल्म में डॉक्टर का न मरना फिल्म के शीर्षक “एक डॉक्टर की मौत” को एक प्रतीकात्मक अर्थ देता है. डॉक्टर का शोध, उसका सम्मान, उसका आत्म गौरव, उसकी पहचान सब उससे छीन लेना एक इन्सान की वास्तविक मौत हो न हो उसके भीत्तर छुपे डॉक्टर की आत्मा की मौत अवश्य है.

मेरा उद्देश्य डॉक्टर या चिकित्सीय पेशे का विश्लेषण या मूल्यांकन करना नहीं था. बल्कि कैसे हम एक पेशे को एक चेहरा दे देते है, एक छवि दे देते है और कुछ शब्द दे देते है. ये कुछ सच्चाई और काफी मिथ्या का मिला जुला  रूप होता है. कोई वकील कोर्ट में “तारीख पे तारीख…..” नहीं बोलेगा और शायद ही कोई पुलिसवाला सरेआम गुंडों की पिटाई कर सकता है. फिल्मो में व्यवसाय मूल रूप से केवल चरित्र की उपलब्धि दिखने के लिए किये जाते है, पर कभी कभी आनंद का द्वन्द से घिरा डॉक्टर या एक डॉक्टर की मौत का हताश डॉक्टर भी दिख जाता है. मैंने जब अनुभूति वालो से पूछा कि तुमने फूको पढ़ी है तो उन्होंने  कहा नहीं. शायद अनजाने में ही सही हमारी हताशा हमारे विचारो को बल देती है. राज कुमार हिरानी ने फूको पढ़ी होंगी या नहीं क्या पता पर इंसानी जज़्बात हर जगह एक जैसे है. फिल्मो की यही तो खासियत है … छोटी सी बात में इतना कुछ कह जाता है की बड़े बड़े विद्वानों की सारगर्भित पुस्तके नहीं कह पाती. इसलिए तो आनंद मुन्ना भाई आदि के डॉक्टर हमसे सवाल करते है तार्किक भी भावनात्मक भी. और हम भूल जाते है की  हज़ारो फिल्मो में डॉक्टर “i am sorry” के आगे कुछ नहीं बोलते, हमें याद रहते है वो डॉक्टर जिनमे इंसानी द्वन्द, पीड़ा, इंसानी जज़्बात झलकते  है……..