-संतोष कुमार
महाभारत पढ़ते पढ़ते
कुछ सोचा तो अचरज हुआ
कुछ प्रश्न पूछने का मन हुआ
जानता हूँ धर्म- अधर्म की दीवारे सब
नीति शास्त्र की बाते सब
नायक खलनायक के किस्से
मिथ्या है छलावा है
पर फिर भी हृदय व्यथित हुआ
करुण वेदना से भरकर
शब्दों से आतंकित होकर
ये प्रश्न पूछा द्रौपदी से
मन ही मन भारी मन से
“तुम ही थी न उज्जवल
सशक्त कर्मठ राजकुमारी
तुम ही थी न जिसने
कर्ण की सान्निध्य न स्वीकारी
तुम सशक्त थी स्वयंवर तुम्हारा
वर भी तुम्हारी इच्छा से होता
फिर तुमने इन पांडवो की
दासता क्यूँ स्वीकारी?
जानता हूँ ये नहीं थी
नियति कभी तुम्हारी
माँ की बेतुकी आज्ञा
तेरे जीवन पर पड़ गयी भारी
युद्धिष्ठर के कोरे शास्त्र को क्यूँ
तूने कभी न टोका
प्रश्न पूछता हूँ तूने अपनी
नियति क्यूँ स्वीकारी
मज़बूत थी तू तुझमे
भरा था सामर्थ्य अपूर्व असीम
भरी सभा में अपमानित होना
नहीं था तेरा नसीब
तूने उनको तो सज़ा दी
जिसने वस्त्र तेरा खींचा
पर क्यूँ माफ़ किया था उनको
जिसने तुझे था बेचा
जिसने तुझे वस्तु बनाया
चौसर के खेल में
उन पांडवो से मिल गयी क्यूँ
रिश्तो के झूठे मेल में
हे द्रौपदी क्यूँ चुप हो गयी
तू घर की चौखट में आकर
क्यूँ बाँध दिया तूने खुद को
सबके बहकावों में आकर
क्यूँ नहीं तूने पांडवो को
अपनी वाणी से भस्म किया
क्यूँ नहीं तूने चुनकर अर्जुन को केवल
युद्धिष्ठर का मुख बंद किया
क्यूँ नहीं तूने खुद ही अपने
हाथों में तलवार उठाई
क्यूँ किया विश्वास तूने
क्यूँ अपने मन में ऐसी आस जगाई
हे द्रौपदी तू पुरुष प्रधान समाज की
बेड़ियों में क्यूँ बंध गयी
आज भी दुनिया में द्रौपदियां
हर आँगन में पलती है
कभी कौरवो से शोषित होती
कभी पांडवो से लडती है
हे द्रौपदी मुझे तुम्हारे
सामर्थ्य की दरकार है
हे जगत की द्रौपदियों हमें
तुम्हारे उठने का इंतज़ार है……
Read it thrice….very well written…:)
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thanks a lot!!
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