अस्तित्व कहाँ है
कहाँ है जीवन
मिथ्या लोक का मिथ्या मंचन
त्रुटि है क्या या भूल कोई
जो ये मानता चला
कि जिंदा हूँ मैं
ये हांड मांस की काया नहीं मैं
ये तड़पता तरसता ह्रदय नहीं
ये बुद्धि जो दर्द से फटती है
ये पहचान मेरी भी मैं नहीं
जब मौत से मरेगा
या बुड्ढा हो जायेगा
जब आत्मा का दर्द
शरीर में भर जायेगा
तब पूछूँगा कौन हो तुम
मैंने तो तुम्हे माँगा नहीं
फिर क्यूँ आये तुम मेरी गली

अस्तित्व बस खेल का
इस दुनिया में जी बहलाने का
आने का, फिर सोचने का कि क्यूँ आये
और बिना कुछ जाने चले जाने का
जिंदा होने का क्या मतलब
जब जिंदा होना बोझ हो
हर काम को करने के बाद
जब उसपर अफ़सोस हो
लोग मौत के डर से जीते है
हम जीने के डर से मरते है
जिसका होना न होना बराबर है
उसको ही अस्तित्व कहते है

क्यूँ लिखता हूँ ये खोखले शब्द
ये शब्द मेरे पर मैं नहीं
इन निरर्थक शब्दों को लिख
जाने क्यूँ तृप्ति मिलती है
अपनी भड़ास निकल कलम से
एक अलग सी शांति मिलती है
इसलिए शायद लिखते है कि
ये मन का गुबार कभी
मेरा ही दुश्मन न बन जाए
अन्दर से मरता रहूँ चाहे
भीड़ में सदा मुस्कान आये.

सर में थोडा दर्द है
ह्रदय में कुछ तनाव है
साँसे हैं भारी भारी
और बुद्धि में ताप है
शान्ति की तलाश है
अंतर्मन तो खाली है
मुझसे अस्तित्व के प्रश्न पूछता
मेरा मन सवाली है