-संतोष कुमार
We respect women only to the extent the patriarchal structure is not questioned, not challenged
dude there is a difference between “concession” and “agency” as far as women rights are concerned
women are harbingers of morality and thus their individual act of transgression needs to be taken as a symbol of general case of inferiority of women race. wow, such mansplaing
 
oh she is a feminist!! and since i don’t know the first word about feminism, i will call out their names and shame them so that i can feel good about male chauvinism
and to every complaint of atrocities faced by women, my only possible response will be a kind of whataboutery (what about men, don’t they feel discrimination- yes they do, but for that you don’t need to encroach upon the space of women liberation, let’s give space to each other’s discourse rather than encroaching and eating up the spaces made for others)
 
and by targeting individuals and then using the already skewed premise to invalidate the whole discourse is as stupid as saying that history is a bad subject because my history teacher in elementary school was not good enough. kindly keep your not so honorable opinions to yourself unless you can’t defend it with arguments and not another set of judgmental opinions.

 

सच तो ये है कि हम स्त्री को एक पितृ सत्तात्मक गुडिया समझते है, जिनकी भूमिका सिर्फ किसी की पत्नी, बहु और माँ बनना है. और फिर हम पूछते है कि समाज तरक्की क्यूँ नहीं कर रहा. क्यूंकि महानुभाव हम लोग समाज की तरक्की का अर्थ पुरुषो की तरक्की समझते है. स्त्रियों को तो हम दीवारों के भीतर रोटी पकाते और झाड़ू लगते देखना चाहते है. प्रश्न ये उठता है कि क्या हम उस समाज के  प्रतिनिधि है जो औरत को  नैतिकता के पाश में बांधकर अपने अहं की तुष्टि करते फिरते है. हम सब वही है- स्त्रियों की प्रगति हमको डरावनी लगती है, उनका आधुनिकरण हमें कचोटता है, हमें भय लगता है कि पुरुष प्रधान सत्ता का दम्ब और वर्चस्व कैसे बनाये रख पायेंगे हम यदि स्त्रियों पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया. पिछले दिनों एक कहानी पढ़ रहा था जहाँ एक वकील अपनी होने वाली बहु के घर जाता है रिश्ते के लिए, और उसकी हर मुलाकात पर उसे आराम करते पाता है, और वो ये कहकर शादी से इनकार कर देता है कि जो स्त्री अपनी पारंपरिक भूमिकाओ का निर्वाह नहीं कर सकती उससे विवाह क्या करवाना. साथ ही स्त्री कर्त्तव्य पर उसे एक सारगर्भित भाषण भी सुना आता है. पुरुष जब स्त्रियों के कर्त्तव्य का बखान करने लगते है तो पहला प्रश्न तो दिमाग में यहीं आता है कि- “किसके प्रति?” पुरुषो के. “किसके द्वारा?” स्त्रियों के. इन्ही दो वक्तव्यों में गहरा विमर्श छुपा है. हम अक्सर जब स्त्रियों के सम्मान की बात करने लगते है तो लगता है जैसे अपने बल को और अधिक प्रशस्त कर रहे हो. एक टी.वी. शो का विज्ञापन था जहाँ औरतो को आदमी को छेड़ता हुआ दिखाया गया जिसका मंतव्य ये दर्शाना था कि स्त्रियों को कैसा प्रतीत होता है जब उन्हें इन चीज़ों से गुज़रना पड़ता है. विचार बहुत अच्छा था, पर जैसे ही लड़का लोगों की ओर मुखातिब होकर कहता है- “ऐसा हमारी माँ बहनों के साथ रोज़ होता है”, मेरे मुख से अनायास ही निकल गया- “लो कर दिया सत्यानाश!”> बात औरतो की हो रही है पर आह्वाहन किसको- “पुरुषो को”. और ऐसे उदाहरण हर जगह मिल जायेंगे. जहाँ पुरुष ही बोलेंगे, वहीँ आवाज़ उठाएंगे, और स्त्री अधिकार के नाम पर वो बातें फैलायेंगे जिनसे उनकी सत्ता को चोट न पहुंचे. खैर इस पोस्ट से ज्यादा इस पर आये एक कमेंट पर घमासान हुआ जिसने न केवल पोस्ट का समर्थन किया अपितु दो बातें स्वयं से जोड़ डाली. पूरा मसला स्त्री पुरुष तुलना पर जाकर ठहर सा गया. और यही हमारे देश में नारीवाद का स्वरुप भी है. सब अपने आप को ऊपर साबित करने में तुले रहते है. लड़कियां कहती है- “स्त्रियाँ पुरुषो से किसी चीज़ में पीछे नहीं, या हर चीज़ में आगे है, या हर सफल आदमी के पीछे एक स्त्री का हाथ है” वहीँ पुरुष अपने प्रभुत्व का डंका बजने के लिए लड़कियों को ऐसे दरकिनार कर जाते है मानो पूरी सृष्टि, पूरा इतिहास पुरुषो की देन है. इन दोनों पाटो के बीच ये प्रश्न कहीं धूमिल से हो जाते है कि व्यक्ति के चरित्र, उसकी उपलब्धियों, हीनता या महानता का उसके लैंगिक अस्मिता से क्या संबंध है, और अगर है भी तो क्या ये संबंध प्राकृतिक है या सामाजिक संरचना का परिणाम?

बच्चे को जन्म देना एक भौतिक प्रक्रिया है, परन्तु घर का काम करने में कोई भौतिक प्रक्रिया आड़े नहीं आती. आड़े आती है हमारी कुंठित सोच. आड़े आती है आपका अज्ञान जो स्त्रियों को एजेंसी देने के विचार से भी थर थर काँपता है. अगर कोई चीज़ सदियों से चली आ रही हो ज़रूरी नहीं कि सही हो. अगर आप एक कुंठित सोच का समर्थन कर रहे है क्यूंकि सबका पुरुष नारी समानता में विश्वास नहीं तो अपने आप से प्रश्न पूछिए कि स्त्रियों की नियति तय करने वाले आप हम कौन, उन्हें सीमाबद्ध करने वाले आप हम कौन? ये आवश्यक ही क्यूँ है कि स्त्री को बहु, बेटी, माँ के कर्तव्यो के निर्वाह करने के लिए बाध्य किया जाए. ओ पुरुष वर्चस्व के प्रतिनिधि, ज़रा अपनी पुरुष प्रधानता यहाँ भी दिखाईये, घर का काम खुद भी कीजिये, बहु लाईये नौकरानी मत लेकर आईये. किसी स्त्री के लिए ये कतई आवश्यक नहीं कि वो पुरुषो के संसार के नीचे दबकर अपना अस्तित्व भूल जाए. अगर पुरुष केवल पुरुष है तो स्त्री भी केवल स्त्री है. बाकि सारी बातें साड़ी भूमिकाएं समाज की देन है.

किसी ने ऑनलाइन एक कहानी शेयर की जिसका सारतत्व ये था कि पिता अपनी पुत्री को आई-फ़ोन के कवर से तुलना कर ये बताता है कि जैसे आई फ़ोन का कवर उसे और अधिक सुन्दर बनाता है वैसे ही स्त्री की सुन्दरता उसके कवर यानि ढके रहने में है !! (क्या उदाहरण दिया है वाह, ऐसी तुलना के लिए तो नोबेल का साहित्य पुरस्कार भी कम है). ये जवाब सुनकर कहानी में बेटी की आँखों में आंसू आ जाते है और वो चुपचाप पिता की बात को अंगीकार कर लेती है. कहानी पढ़कर मेरा मन हुआ कि क्या बेटी यदि अपने पिता के सामने मुंह न खोले तो ज़रूरी नहीं कि उसके पिता के मुंह में डाले गए ये शब्द सच हो गए. हमारा समाज हमेश हमारे मुंह पर ऊँगली रखने को आतुर रहता है, और फिर हमारी ख़ामोशी को हमारी हाँ समझ लेता है. हो सकता हमारी कहानी बेटी अपने पिता को कुछ ऐसा जवाब दे – “पिताजी संस्कृति के नाम पर पितृसत्ता का बोझ मुझ पर थोपना बंद करे. अगर आप तुलना के लिए आई-फ़ोन का उदाहरण प्रयोग ला रहे है तो इसका अर्थ कहीं न कहीं ये है कि आपके समाज आपके संसार में हमारा स्थान आज भी एक सुन्दर सजावट से अधिक कुछ नहीं. हमें नियंत्रित करके, हमपर अधिकार स्थापित करके, हमें नैतिकता से लादकर आप अपनी सत्ता को चिरकाल तक बनाये रखना चाहते है. कम या अधिक कपडे पहनने से किसी मानव के चरित्र पर कोई प्रभाव नहीं होता. मैं भी आपको ऐसा ही उदाहरण देती हूँ. कवर के साथ ये कौनसा फ़ोन है? आई-फ़ोन. अब मैंने ये कवर हटा दिया, अब ये कौनसा फ़ोन है? आई फ़ोन तो आई फ़ोन ही रहेगा. बिलकुल, यही बात सदियों से हम लोग पूरे समाज को समझाने का प्रयास कर रहे है कि हमारा सम्मान, हमारी गरिमा हमारे आवरण में नहीं छुपी है. लोग हमारे कपडे पर इसलिए नज़र रखते है क्यूंकि उनकी नज़र कपड़ो से झांकते बदन पर टिकी रहती है. नैतिकता के ऐसे ठेकेदारों और वासना से ओतप्रोत लोगों के कारण आप चाहते है कि मैं अपने सामाजिक शोषण को नैतिकता समझकर अपना लूँ. मैं तब तक लडूंगी जब तक सोच न बदल जाए क्यूँकि संस्कृति के लबादे में लिपटे अन्याय को सहने की मेरी कोई इच्छा नहीं है. अगर आपके तर्क का कोई वास्तविक आधार है तो बताईये वरना कृपया आप भी भीड़ का हिस्सा मत बनिए, मुझे आपका सहयोग चाहिए समाज से लड़ने के लिए, आप तो प्लीज ऐसी बातें न करे. मेरा कवर कितना भी छोटा हो, मैं आई फ़ोन ही रहूंगी. अब निर्भर लोगों पर करता है कि उन्हें फ़ोन से सरोकार है या कवर निहारने से. पुरुष अपनी मर्यादा नहीं रह सकते ये अपराध स्त्रियों का नहीं. मर्यादा की सीमा कौन तय करेगा इसका कोई परिमाण नहीं हो सकता. जब तक स्त्रियों की तुलना आई-फ़ोन से होती रहेगी, पुरुष वहशी ही बने रहेंगे क्यूंकि हमारा समाज पुरुषो की नीयत की सज़ा स्त्रियों को देकर पुरुषो को बढ़ावा देने में विश्वास रहेगा. स्त्रियों को “मर्यादा” का नकाब ओढाने से बेहतर होगा कि उन्हें सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम किया जाए. और ऐसे में कोई पिता अपनी बेटी को ऐसी सीख देने लगा तो उनका रहा सहा हौसला भी टूट जाएगा”.

यदि स्त्री का सम्मान कपडे पहनने से आ जाता तो क्या बात होती. स्त्री की सीमा रेखा भी अगर पुरुष तय करने लगे, तो इसे नैतिकता नहीं शोषण कहते है. कपड़ो का नैतिकता से क्या सरोकार है कोई मुझे बता सकता है. इस बात की गया गारंटी कि ढंके शारीर को हवसी नजरो से नहीं देखा जाएगा. पुरुष की निक्कर पर किसी की नज़र नहीं जाती, क्यूँ, क्यूंकि नीयत का आभाव है. पर ढंकी स्त्री में भी लोग अपनी हवस भरी नज़र से सुराख़ कर ही देते है. बताईये कमी कहाँ है. हाँ तो आज कल हमारे समाज ने एक नया आसरा खोज लिया है अपनी स्त्री विरोधी मानसिकता को अभिव्यक्त करने का. कमाल की बात है न, सिनेमा में स्त्री का मांस का टुकड़ा बन जाना हमें नहीं अखरता, फिल्मो में रेप सीन उतने ही आम है जितनी हमारी फिल्मो में गाने, और हो भी क्यूँ न, ऐसे दृश्यों के बूते ही तो हॉल में पॉपकॉर्न चबाये जाते है. पर पिछले दो सालो में स्त्रियों पर केन्द्रित दो फिल्मे आई जिन्हें फेमिनिस्म से जोड़ना बेईमानी है क्यूंकि उनमे विमर्श कितना है और काउंटर फैक्चुअल कितना ये विवाद का विषय है, पर इन दो फिल्मो से हमारी ईगो थोड़ी हिल गयी है. हम फिल्म को कम कोस रहे है, उसके विमर्श पर बात तो हो ही नहीं रही, बजाये हम फिल्म का नाम लेकर नारीवाद की बखिया उधेड़ने पर लगे है. हम कलाकारों की निजी ज़िन्दगी को फिल्म में तोल कर फिल्म और कलाकार को उस चीज़ के लिए कोस रहे है जिसका उस सिनेमा से कोई संबंध नहीं (हाँ, उनका निजी जीवन सलमान खान और संजय दत्त जैसा नहीं है, पर दुनिया में आपको औरत होने पर ज्यादा जज किया जा सकता है, अपराधी होने पर कम). आप कहेंगे ये तो बहुतो के साथ होता है, अगर ये सवाल उठाओगे तो कई और फिल्मे, कई और कलाकार ऐसे निकल कर आ जायेंगे जिनके सिनेमा का अपमान और उनके निजी आलोचना को हम अलग नहीं कर सकते, और इसके दोषी हम खुद है, औरो को क्या बोले. यहाँ अंतर ये है कि जब यहीं काम सुनियोजित ढंग से बड़ी संख्या में संस्थाग्नत रूप से किया जाने लगे तो प्रश्न उठाना लाज़मी है- “आपकी समस्या कलाकार है, फिल्म है, या विमर्श”. आईटी सेल बड़े सिलसिलेवार तरीके से फिल्म की रेटिंग गिराने का ओछा प्रयास कर रहा है.  वास्तव में हम डरते है, डरते है कि शायद हमारी नैतिकता इतनी कमज़ोर है कि स्त्रियों को उसमे लम्बे समय तक बंद करके रख पाना शायद सम्भव नहीं. जब नैतिकता को सार्थक करने के लिए हम मूर्खता पर उतर आये तो मज़ाक तो उन तथाकथित शरीफों का ही बनता है.

हमारा नारीवाद वास्तव में हमको पीछे धकेल रहा है, क्यूंकि हम प्रश्न पूछने से डरते है, डरते है कि हमारी लैंगिक प्रभुता का अहं ठंडा तो नहीं पड़ जायगा. नारीवाद को गाली देने वाले लोग वहीँ है जो नारीवाद को सबसे कम समझते है और उससे भी कम पढ़ते है. हमारा नारीवाद नारे लगाना तो जानता है पर अपने अस्तित्व को टटोलना नहीं. हम सब अपने परिवेश से निर्मित मूल्यों से काफी हद तक बंधे होते है इसीलिए उन मूल्यों पर प्रश्न उठाना काफी हद तक अपने खुद के अस्तित्व की अवमानना करना है. पर कम से कम इतना तो करे, नारीवाद के नाम से नाक भोंह न सिकोड़े, नारीवाद पर विमर्श हो सकता है, होना चाहिए, विवाद भी हो सकता है, पर अहं की लड़ाई विमर्श और उस समाज को भी कमज़ोर कर देगी जहाँ प्रश्न पूछे जा सकते है. अगर हम अपने आप से सवाल नहीं पूछ सकते, चार लोगों के सामने विमर्श नहीं कर सकते, तो स्त्री अधिकारों पर एक आघात तो आपने विचारो के चरण में ही लगा दिया. हमारा नारीवाद किसी की उदारता से नहीं, अपितु सबकी सहायता से आगे बढे, यही इसकी सार्थकता है.