लेखक
अनुराग गौतम
शोधार्थी (इतिहास विभाग)
दिल्ली विश्वविद्यालय

प्रेम मानव जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि भोजन। प्रेम एक भावना के रूप में इतिहास, भूगोल और समय की सीमाओं को पार कर सभी मानव जातियों के बीच मे उपस्थित है। प्रेम की भावना प्राकतिक सीमाओ को पार कर जाता है जबकि मानव निर्मित सीमाएं यथा जाति, धर्म, लिंग व नस्ल प्रेम में बाधक नही हो सकती है। प्रस्तुत लेख में भारतीय उपमहाद्वीप में जनमानस ने उपस्थित प्रेम के विविध रूपों पर प्रकाश डाला गया है।

भारतीय लेखन परंपरा में प्रेम को विषय बना कर अनेक ग्रंथ लिखे गए है कालीदास (चौथी-पांचवी शताब्दी ईसवी सन) की रचना मेघदूतम आदि है जिनका मुख्य विषय प्रेम है। जिनमे स्त्री व पुरुष के बीच प्रेम घटित होने का वर्णन है। शूद्रक (200-251 ईस्वी सन) की रचना मृच्छकटिकम में एक गणिका वसन्तसेना व चारूदत्त ब्राह्मण की प्रेम कहानी का वर्णन है। चारूदत्त एक विवाहित पुरूष है जिसको वसन्तसेना से प्रेम हो जाता है, इनका प्रेम सामाजिक नियमों के खिलाफ़ है। क्योंकि प्रथम चारूदत्त एक विवाहित पुरुष है, द्वितीय वसंतसेना एक गणिका है। मृच्छकटिकम संभवता ऐसा पहला ग्रंथ है जिसकी प्रेम की अवधारणा में गणिका के प्रेम को स्वीकार किया गया है अन्यथा पुरुष व गणिका के बीच संबंध सिर्फ यौन व्यापार तक सीमित है।

मध्यकाल में उत्तर भारत मे भक्ति आंदोलन का उदय होता है जिसके सगुण भक्ति संत तुलसीदास(1511-1623) की रचना रामचरितमानस को लोगों के बीच मे लोकप्रियता हासिल है। रामचरितमानस में अयोध्या नरेश राम व उनकी पत्नी रानी सीता की कहानी का वर्णन है। राम और सीता की कहानी दाम्पत्य प्रेम कहानी का आदर्श मानी जाती है क्योकि इस प्रेम की अवधारणा में सभी सामाजिक व धार्मिक कानूनों का पालन किया गया है। रामचरितमानस में वनवास सिर्फ़ राम के लिए था सीता का वनवास में जाना जरूरी नही था। रानी सीता के पास ये विकल्प था कि वो चांहे तो महलों में रह सकती है, लेकिन पति राजा राम के साथ वनवास जाने का निर्णय रानी सीता का था, रानी सीता ने महल से वनवास तक हर परिस्थिति में पति राजा राम का साथ दिया। राजघरानों में राजाओ के कई रानियां रखने की प्रथा प्रचलित थी, लेकिन राजा राम ने पूरे जीवन एक पत्नी व्रत का पालन किया था। यह दोनों के प्रेम की अवधारणा को विस्तृत करता है जिसमें प्रेम व निष्ठा के तत्व प्रधान है। निष्ठा के बिना प्रेम संभव नही है और हर परिस्थिति में साथी का साथ देना प्रेम की आवश्यक शर्त है।

सगुण भक्ति की दूसरी शाखा कृष्ण भक्ति है। कृष्ण की छवि लोगों में एक राजनीतिज्ञ, ग्वाले, रणनीतिकार के साथ साथ एक रसिक पुरुष की भी है। जिसकी अनेकों गोपिया दीवानी है। कृष्ण की पत्नी रुक्मणी अवश्य है किंतु उनकी पूजा राधा रानी के साथ अधिक होती है। राधा कृष्ण का विवाह नही हुआ था, दोनों के रिश्ते को कोई नाम देना व्यर्थ है। राधा और कृष्ण के प्रेम को लोगों में स्वीकार्यता है, कृष्ण पंथी अपने अभिवादन में राधे-कृष्ण व राधे-राधे कहते है।

कृष्ण भक्ति की अनुयायी मीराबाई(1498-1546 ईस्वी सन) का नाम भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण है। मीरा बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन है। मीराबाई के प्रेम की अवधारणा में लौकिक व अलौकिक जगत के बीच कोई बंधन नही है। मीरा का सांसारिक विवाह तो राजघराने में अवश्य हुआ था किन्तु आध्यात्मिक रूप से वो कृष्ण को अपना पति मान चुकी थी इसी कारण उन्होंने पत्नी के कर्तव्य को निभाने से इंकार कर दिया और कहा कि मेरा विवाह तो कृष्ण से हो चुका है। मीरा की भक्ति में प्रेम है, सेवाभाव है, निष्ठा है और विशेषता यह है कि यह एकतरफा प्रेम है। मीरा जानती है कि वो इंसान है और कृष्ण भगवान, दोनों का मिलान नही हो सकता है और रति क्रिया की भी संभावना नही है फिर भी मीरा कृष्ण भक्ति में लीन है। मीरा का प्रेम समय की सीमाओँ को पार कर जाता है।

मीरा की भक्ति की गहराई उनके भजनों से मालूम होती है। मीरा लिखित भजन “सांसो की माला पे सिमरूं मै पी न नाम” की पंक्तियां ‘यही मेरी बंदिगी है यही मेरी पूजा’ में मीरा कहती है की उन्होंने अपने प्रेमी का नाम अपनी सांसो में लिख लिया है व आगे कहती है कि यही उनके लिये बंदिगी है यही पूजा। उन्हें इसके अलावा उन्हें प्रभु की भक्ति के लिए कुछ और करने कि आवश्यकता नही है। मीरा आगे कहती है कि
‘प्रेम के रंग में ऐसी डूबी, बन गया एक ही रूप, प्रेम की माला जपते जपते आप बनी मैं श्याम’
अर्थात मीरा श्याम(कृष्ण) के प्रेम में इतनी डूब गई है कि अब मीरा और श्याम दो अलग अलग नही रहे है अब वो दोनों एक हो गए है जैसे दो शरीर एक प्राण। उन्हें अब श्याम की भक्ति करने के लिए कुछ और करने कि आवश्यकता नही है मीरा का प्रेम ही उनकी भक्ति है। मीरा कृष्ण प्रेम को सजीव मान चुकी है और कहती है “अब किश्मत के हाँथ है, इस बंधन की लाज, मैंने तो मन लिख दिया सवारियां के नाम” मीरा अपने सवारियां पर सर्वत्र न्यौछावर कर चुकी है और आने भाग्य के सहारे है यहाँ ‘लाज’ का तात्पर्य लोकलाज से नही है बल्कि संबध की गहराई की लाज से है कि शायद उनके प्रेम की गहराई के कारण ही उनके सवारियां से मिलन हो जाये।

यह तो जगज़ाहिर है कि मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम एकतरफा प्रेम है और एकतरफा प्रेम की यह विशेषता होती है कि इसमें प्रेम करने के लिए प्रियतम (beloved) की ही आवश्यकता नही होती है। मीरा इस प्रेम से होने वाली जगहँसाई से वाक़िफ़ है और इस जगहँसाई से वो अपने श्याम अर्थात कृष्ण को बचाने का प्रयास करती है और बदनामी अपने सर लेते हुए कहती है कि “प्रीतम का कुछ दोष नही है वो तो है निर्दोष, अपने आप से बातें करते हो गई मैं बदनाम” प्रेम की यही प्रकति है इसमें इंसान अपने प्रियतम को हर बुराई से बचाना चाहता है और जिससे प्रेम करता है उसको हर हाल खुश देखना चाहता है। मीरा कृष्ण प्रेम में ही सुख खोजती है और कृष्ण प्रेम से ही मुक्ति की अपेक्षा करती है। मीरा का प्रेम समय की सीमाओँ को पार कर जाता है।

निर्गुण भक्ति संत कबीर (जन्मतिथि पर विवाद है) की भक्ति व प्रेम में अंतर कर पाना कठिन है। कबीर ने निर्गुण राम को अपना आस्था का प्रतीक माना है। कबीर के राम निर्गुण राम है जो अयोध्या के राजा राम से भिन्न है। कबीर निर्गुण राम की भक्ति में लीन है उनकी भक्ति की अवधारणा में प्रेम निहित है। कबीर राम से प्रेम करते है और कहते है कि

बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोऊ कहे तुम्हारी नारी। मोकों लागत लाज रे।
दिल से नही लगाया, तब तक कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, ग्रह बन धरे न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, जो प्यासे को नीर रे।

कबीर अपने बालम को कहते है आओ बालम मैं कब तक इन्तजात करु तुम्हारा, ये शरीर तुम्हारे बिना दुखी। सब कोई मुझे तुम्हारी पत्नी कहते है मुझको इससे लाज अति है। पर जब तक तुम मुझे अपने दिल से नही लगा लेते तब तक हमारे(कबीर) तुम्हारे(निर्गुण राम) कैसा प्रेम ?
कबीर आगे कहते है मुझे तुम्हारे बिना भोजन अच्छा नही लगता, नींद भी नही आती, मेरा मन अब घर मे नही लगता है। कबीर अपनी प्रेम पीड़ा को अपने प्रभु निर्गुण राम को संबोधित करते हुए कहते है कि मुझ कामिन (काम वासना सहित स्त्री) को अपने बालम अर्थात तुमसे(निर्गुण राम) से वैसा ही प्रेम है जैसे प्यासे इंसान को पानी से प्रेम होता है।

कबीर अपने निर्गुण राम से मिलन का वैसे ही इंतजार कर रहे है जैसे सेज़ पर बैठी पत्नी अपने पति का इन्तजार करती है। कबीर राम भक्ति में अपनी पुरुष पहचान को भुला देते है व कबीर ख़ुद को स्त्री मानकर निर्गुण राम के साथ सेज़ सजाने अर्थात एक बिस्तर पर सोने की इच्छा जताते हैं। कबीर कहते है कि हे राम ये कैसा प्रेम है कि मैं आपसे मिल नही सकता है, जब तक हम(कबीर) और आप(निर्गुण राम) एक बिस्तर पर एक साथ न सो ले तब तक हमारा प्रेम पूरा नही हो सकता है। यह कबीर की भक्ति का ही रूप है जिसमे कबीर अपने प्रियतम(Beloved) निर्गुण राम के साथ बिस्तर पर सोकर अपनी भक्ति को पूर्ण मानते है कबीर के लिए इसके बिना सब अधूरा है। यह कबीर की राम के प्रति भक्ति, प्रेम व अगाध श्रद्धा है जिसमे कबीर अपनी पुरुष पहचान को भूल जाते है और एक पत्नी की भांति निर्गुण राम की प्रेम करते है। कबीर की भक्ति में निर्गुण राम परमपुरुष है, सारे जग के पति है और सब उनकी पत्नी है। कबीर की भक्ति प्रेम की सीमा तक जाती है जो लैंगिक सीमाओँ को भी पार कर जाती है।

सूफी संतो की प्रेम की अवधारणा में निष्ठा, समर्पण व धार्मिक बंधनो से मुक्ति शामिल है जिसमे सूफ़ी खुदा की भक्ति में खुद को भुला कर फ़ना (न्यौछावर) हो जाना चाहते है। सूफी महफ़िलो में समा (संगीत) और फ़ना का विशेष महत्व है। जिसमे सूफी संत संगीत की धुनों में मगन हो जाते है। बीसवीं शताब्दी के सूफी कवि अनवर फरुखाबादी(1928-2011) कि ग़ज़ल “ये जो हल्का हल्का सुरूर है सब तेरी नज़र का कसूर है” प्रेमी(Lover) और प्रियतम(Beloved) के सम्बंधो को बहुत ही ऊँचे स्तर पर ले जाती है। इस ग़ज़ल की पंक्तियां
“न मुझे नमाज़ आती है ना वज़ू आता है, मैं सज़दा कर लेता हूं जब सामने तू आता है” यह प्रेम के लिए धार्मिक क्रियाओं को गैर-जरूरी बताता है बल्कि प्रेमी को देखना ही इबादत के बराबर है। आगे की पंक्तिया
“मेरे सर को दर तेरा मिल गया, मुझे अब तलाश-ऐ-हरम नही मेरी बंदगी है वो बंदगी, जो मुकीद-ऐ-दैर-ओ-हरम नही
मेरा इक नज़र तुम्हें देखना, बा खुदा नमाज़ से कम नही

अर्थात मेरे सर को तुम्हारे घर का आसरा मिल गया अब मुझे किसी पवित्र स्थल की तलाश नही है, मैंने प्रेम में जो तुम्हारी बंदिगी (अधीनता) स्वीकार कर ली है अब मुझे किसी भी पवित्र स्थल की आवश्यकता नही है। मैं तुम्हे एक नज़र देख लेता हूं यही मेरे लिए नमाज़ के बराबर है। सूफ़ी प्रेम में उसका प्रियतम ही उसके लिए ख़ुदा है। सूफियों के लिए प्रियतम से प्रेम ही सबसे बड़ी इबादत है इसके अलावा बाक़ी इबादते व धार्मिक क्रियाकलाप उनके लिए ग़ैर-जरूरी है। सूफ़ी प्रेम में प्रेमी अपने प्रियतम के प्रति समर्पित व निष्ठावान है। इतने समर्पण के बाद भी जब प्रियतम उससे प्रेम करने को तैयार नही है तो प्रेमी प्रियतम से कहता है
“मेरे बाद किसको सताओगे, मुझे किस तरह से मिटाओगे, कहाँ जा के तिरी चलाओगे, मेरी दोस्ती की बालाएं लो मुझे हाँथ उठा कर दुआएं दो, तुम्हे एक क़ातिल बना दिया” अर्थात में मेरा प्रेम स्वीकार न करके तुमने मेरा क़त्ल ही कर दिया है, अब मेरे बाद किसे सताओगे, मेरे प्रेम को कैसे मिटाओगे, किस पर अब हुक़्म चलाओगे, तुम मुझे धन्यवाद दो की तुमने मेरे क़त्ल करके मैने तुम्हें एक क़ातिल बना दिया। सूफ़ी प्रेम की अवधारणा में प्रेमी अपने प्रियतम का प्रेम पाने के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर देता है लेकिन तब प्रेमी क्या करे जब प्रियतम(Beloved) इतने समर्पण के बाद भी अपने प्रेमी(Lover) से प्रेम का परस्पर आदान-प्रदान न करे।