आसान कहाँ था मेरे लिए पांच पतियों की पत्नी बनकर जीना, आयावर्त की सम्राज्ञी थी मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धनुर्धर अर्जुन की, भीमकाय महाबलशाली भीम की, अश्विनी कुमारों नकुल और सहदेव की अर्धांगिनी थी!!!
सोच कर देखो, इन सबकी अर्धांगिनी. इन पाँचों को समर्पित करने के बाद क्या मुझमे मेरा कोई अंग शेष रहा होगा? मेरा सामर्थ्य? मेरी संवेदनाएं..क्या जीवित रह पायी होंगी??
वचन तो पुत्रों ने दिया था राजमाता को, फिर ये मेरी नियति क्यों बनी और जीता भी तो एक ही ने था- पार्थ ने, फिर सबको सौप देना बस एक वचन के कारण??
राजमाता आप तो जानती थी न, समझने का सामर्थ्य भी तो था आपमें. स्त्री होकर भी ऐसा वचन? दुर्भायपूर्ण!!!
परन्तु.. हाँ स्त्री थी मैं सो कुंठाओं को त्याग मैं आर्यावर्त की साम्राज्ञी, प्रस्थान कर चुकी थी जीवन और नियति के महासमर के चक्रव्यूह के पहले द्वार की ओर…|
आज सब को कहते सुनती हूँ कि महाभारत एक स्त्री की मूर्खता का परिणाम था,उसके बडबोलेपन की उपज थी, दुर्योधन को ललकारने का निष्कर्ष था.
पर नहीं सुना कभी उन्हें यह कहते हुए कि हाँ..हम निर्बल थे! विभाजन हमारी विवशता नहीं विशेषता थी. राज्य का विभाजन, वस्तु का विभाजन, जल धाराओं का विभाजन, सुना था…पर स्त्री का विभाजन..???
एक नहीं..पांच खण्डों में…!!!
फिर..द्युत सभा के उस चौखट पर..पासों की तरह, उठा उठा कर फेंका जाना मुझे. हाँ, आर्यावर्त की साम्राज्ञी को??
और तुम सब के सब पौरुष धारण करके भी, नपुंसकों की भाँति..खड़े रहे! मूक, असहाय..!
मैं न रोती…अगर तुम उस बिसात पर राज्य को दांव पर लगा देते. हार जाते, तो क्या? अगर… मैं फिर साम्राज्ञी नहीं रहती, पर तुम्हारी पत्नी तो होती,
अपनी अस्मिता और प्रतिष्ठा के साथ..!!!
पर तुम्हारा पौरुष, तुम्हारा सम्मान, सब दांव पर लगा था न? बची थी तो सिर्फ मैं! तुम्हारी..
नहीं नहीं, तुम सबकी पत्नी..! तुम्हारे धर्म ने फिर तुम्हे माँ के उसी वचन का ध्यान कराया होगा अरे वही. “कि बाँट लो…!!! एक बार फिर, वस्तु ही तो है..मात्र एक वस्तु…अधिकार है हमारा ये साम्राज्ञी तो बाद में हुई, पहले तो विभाजन की प्रक्रिया से गुजरने वाली.. जीती हुई एक तुच्छ वस्तु है, क्या पता इसके भाग्य से आखिरी दांव जीत जाये हम, गर जीते..तो भी हमारी पत्नी..और हार गए तो दासी ही तो बनेगी! सम्राज्ञी से दासी, क्या बड़ा है इसमें? कौन सा परिवर्तन हो जायेगा. स्त्री की तो कहानी ही यही है..हमेशा यही तो रहेगी..!!!!”
और…
धर्म की दुहाई देने वालों…तुम..? क्यूँ मूँद ली आँखें तुमने? स्त्री की अस्मिता से बड़ा धर्म, कोई हो सकता है क्या? द्युत क्रीडा की कुछ शर्तों के सामने, क्या मेरा अस्तित्व नगण्य था.? क्या मेरी चीख, मेरी वेदना,ठहर न सकी.. तुम्हारे कानो में? लड़ न सकी?
वहां मेरे पांच पति थे. महामहिम तातश्री भीष्म भी थे,जो कभी स्त्री की इच्छा के समक्ष ही विवश हुए थे. पर आज, सब…सब कुछ भूल गए आप. क्यों खड़े होकर…कुछ नहीं कहा? एक शब्द भी नहीं..?
कुछ न देख कर भी सब देख सकने वाले काकाश्री भी तो थे पर सब देख कर भी कहाँ कुछ देख सकते थे आप…? आपसे तो अपेक्षाएं बेमानी ही थी…..!!
दर्शकों की मूक श्रंखला, झुके हुए सिर, शर्मसार हुई नज़रें..सब को सब दीख रहा था..पर जिव्ह्या जड़ता की सारी सीमायें तोड़ चुकी थी…आप सब की संवेदनाएं शून्य हो चुकी थी,,
और मैं..ठहरी अबला..!!.
निरीह!
निर्बल!
असहाय!
जिसे मात्र कृष्ण का सहारा था. वो आये भी..मेरे तन से वस्त्र तो नहीं हटे,पर हृदय ने अपनी अस्मिता पर गर्व के उस आँचल को तार-तार होते हुए देखा. विश्वास नग्न था और अभिमान निर्वस्त्र…!! पर फिर भी मेरी अस्मिता बच गयी थी…ऐसा सबने कहा था…!!
भीम तुम्हारे आक्रोश ने भी कहाँ कुछ किया? अर्जुन तुम्हारा गांडीव आज शांत क्यों था? नकुल और सहदेव, तुम्हारे अश्व आज क्यों मुझे बचा कर नहीं ले गए…मेरी अस्मिता समेत? और धर्मराज आप, आपका धर्म आज क्यों दीवार बन कर खड़ा नहीं हुआ? अधर्म के विरूद्ध…शायद उसे भी याद आ गया होगा वही प्रसंग कि पांचाली मात्र एक विभाज्य वस्तु है!!
पर अब पांचाली…
रोएगी नहीं, हँसेगी भी नहीं! क्योंकि हसने और रोने दोनों को, तुम उसकी भावनात्मकता और कमजोरी मानते हो…!!
महाभारत होगा…फिर से होगा! धर्म और अधर्म के बीच ही युद्ध होगा.. पर एक ओर इस विश्व की हर पंचाली होगी और दूसरी ओर धर्म के ठेकेदार अपने अस्त्र शस्त्र के साथ…
इस महासमर में कुंती भी होगी, जो अपने कर्ण को निर्भय हो कर अपनाएगी, लड़ेगी उन सभी प्रश्नों से जो उसके माँ बन ने पर उठ खड़े होते हैं, क्योंकि वो जानती है अब..इन प्रश्नों का मंतव्य मात्र स्त्री की उन्मुक्तता पर अंकुश लगाना है. उसे ज्ञात है अर्जुन के बहुविवाह और पांचाली के विभाजन के बीच का अंतर कि पुरुष स्वयं नहीं बंटते, सिर्फ बांटते हैं.!
गांधारी भी होगी…बंद नहीं खुली आँखों के साथ..हर उस नज़र को झुकाने जो सत्य को झुठलाती हुई निकल जाती है बच कर कुछ न दिखने का बहाना कर के!
शिखंडी भी होगी, अपने अवैधानिक अधार्मिक अपहरण का हिसाब चुकाने के लिए…!!!
सुभद्रा भी होगी. अपने अभिमन्यु के साथ जिसे उस चक्रव्यूह के सातों द्वार को भेदना आता है जो बार बार नारी की अस्मिता को प्रताडित करता है, बन्धनों में जकड कर रखता है और लड़ने नहीं देता. रोक लेता है, धर्म की दुहाई देकर..!!
दुशाला भी आएगी, अपनी भावज की अस्मिता के लिए चट्टान की तरह खड़ी होने, अपने भाइयों से चीख चीख कर पूछने,उनकी मूक दृष्टता के कारण और याद दिलाने कि वह भी एक स्त्री है!
…….
रणभेरी बज चुकी है. पांचाली अपने अभिमान के रथ पर सवार, विश्वास रुपी कृष्ण को अपना सारथी बना, सेना नायक बन कर खड़ी हैं. संपूर्ण विश्व की जागी हुई पान्चालियाँ उसके पीछे हैं. निर्भय.
निर्बाध.
सबल.
युद्ध जारी है. युद्ध पुरुषों और स्त्री के मध्य नहीं है. युद्ध है समानता के उस राज्य को प्राप्त करने के लिए जिसे पतित मानसिकता की बेड़ियों से पुरुषों ने बाँध रखा है! पांचाली लड़ रही है. तर्कों और अस्त्र शस्त्र से, सम्मान पर किये गए हर वार का बदला लेने के लिए.
देखो तो.अब मशालें जल चुकी हैं. ये शाम है. आज के दिन का अंत..!!
पर एक नयी सदी दस्तक देगी, कल के सूरज के साथ. आना अपनी अपनी अटारियों पर..खुली हवा में सांस लेने. द्रौपदी के अश्वों के वेग से उड़ती धूल को माथे लगाने. अपनी बेटियों को भी तिलक करने. समाज के विरुद्ध इस महासमर में एक सैनिक की भाँति भेजना उन्हें. उनकी नियति बदलेगी. खुद लिखेंगी वो अपनी नियति…पांचाली, कुंती, सुभद्रा, गांधारी, की तरह…एक नए धर्मं के लिए..!!!
जिसमेवह विभाज्य नहीं हैं. जिसमे वह, वस्तु नहीं हैं, अस्पृश्य भी नहीं है. जिसमे उनके हिस्से अश्रु नहीं हैं. प्रतिशोध है, विजय है सम्मान है.. जिसमे वह एक माँ है, जो जन्म देती तो है धर्मराज को, पर वह मूक नहीं है. जिसमे वह एक बहिन भी है, जो रोकती है दुर्योधन को. जिसमे वह गांधारी है..जो निर्णय लेती है, जांच परख कर और पांचाली है जो और विभाजित नहीं होगी, जो अपनी अस्मिता को मान्यता दिलवाएगी. महाभारत लड़ कर, जीत कर और इन बेड़ियों को खोल कर नाचेगी, हँसेगी, गाएगी और उड़ जायेगी अपने स्वाभिमान के पर लगा…
और महाभारत का यह संस्करण हर घर में होगा, सवालों और जवाबों के साथ. जिसमे सब कुछ धर्म निर्धारित नहीं करेगा. जिसमें धर्म की परिभाषाएं स्त्री की अस्मिता को हर बार झकझोरेंगी नहीं.
यह महासमर भी…
अमर होगा..
अमर…!!!
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चित्रान्शी श्रीवास्तव
उम्दा लेखनी( प्रयास ) के लिए बधाई..-)
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Dhanyawad sir.
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उम्दा लेखनी के लिए हार्दिक बधाई..😊😊😘
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Bhut acche!!
Likhte rho bdhte rho!!
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बहुत अच्छा
सुभाशीष
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Bhot bhot shukriya!😊
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It’s the best time to make a few plans for the longer term and it is time to
be happy. I’ve read this publish and if I
may just I wish to counsel you few attention-grabbing issues or suggestions.
Maybe you can write subsequent articles relating to
this article. I wish to learn more issues approximately it!
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sure. we will publish some more material on this issue. actually there is a followup of the same. it is called “aakhir kyun draupadi”. you can read that one as well.
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