आज सड़क पर देखकर भी;
भूखे गरीब बेबस बेबस बच्चो को,
दिल पसीजा नहीं जाता,
हर गली पर देख फ़क़ीर एक;
कदमो को खींचा अब नहीं जाता,
शायद मर गयी है आत्मा मेरी;
या शायद इसे बड़ा होना कहते है
जब अपने पैरो तले;
धूल छुप जाने लगे
जब अपने पैरों टेल;
घास कुचली जाने लगे,
जब ज़मीर मरने लगे;
और न जीने की आशा हो,
लोग तमाशबीन बन जाए;
और दुनिया तमाशा हो.
आज मरा था कोई सड़क पर;
और मैं रुका भी तो इसलिए,
कि जाने इतना ट्रैफिक क्यूँ है
ट्रैफिक छंट गया और निकल गया मैं,
अपने साथ अपने ज़मीर को भी;
कहीं दूर छोड़ आया मैं,
शायद अब मैं,
बड़ा हो गया हूँ….